4
प्रेम सहनशील और दयालु है। प्रेम न तो ईष्र्या करता है, न डींग मारता, न घमण्ड करता है।
5
प्रेम अशोभनीय व्यवहार नहीं करता। वह अपना स्वार्थ नहीं खोजता। प्रेम न तो झुंझलाता है और न बुराई का लेखा रखता है।
6
वह दूसरों के पाप से नहीं, बल्कि उनके सदाचरण से प्रसन्न होता है।
7
वह सब कुछ ढाँक देता है, सब कुछ पर विश्वास करता है, सब कुछ की आशा करता और सब कुछ सह लेता है।
8
नबूवतें जाती रहेंगी, अध्यात्म भाषाएँ मौन हो जायेंगी और ज्ञान मिट जायेगा, किन्तु प्रेम का कभी अन्त नहीं होगा
9
क्योंकि हमारा ज्ञान तथा हमारी नबूवत अपूर्ण हैं
10
और जब पूर्णता आ जायेगी, तो जो अपूर्ण है, वह जाता रहेगा।
11
मैं जब बच्चा था, तो बच्चों की तरह बोलता, सोचता और समझता था; किन्तु सयाना हो जाने पर मैंने बचकानी बातें छोड़ दीं।
12
अभी तो हमें दर्पण में धुँधला-सा दिखाई देता है, परन्तु तब हम आमने-सामने देखेंगे। अभी तो मेरा ज्ञान अपूर्ण है; परन्तु तब मैं उसी तरह पूर्ण रूप से जान जाऊंगा, जिस तरह परमेश्वर मुझे जान गया है।
13
अभी तो विश्वास, आशा और प्रेम-ये तीनों बने हुए हैं। किन्तु इन में से प्रेम ही सब से महान है।
यह पोस्ट निम्नलिखित भाषाओं में भी उपलब्ध है: पुर्तग़ाली अरबी बेलारूसी बंगाली बुल्गेरियाई भाषा दानिश फिनिश भाषा जॉर्जियाई भाषा ग्रीक/यूनानी हंगेरी मलय मंगोलियन नेपाली नार्वेजियन पुर्तग़ाली (पुर्तगाल) सिंहली स्लोवाक भाषा स्वाहिली स्वीडन की भाषा तमिल तेलुगू तुर्की ज़ूलू चेक भाषा मलयालम स्पैनिश(स्पेन) लिथुअनिअन भाषा मराठी पंजाबी गुजराती मैसीडोनियन अम्हारिक् भाषा उज़बेक भाषा